मनुष्य
अंत का आरंभ है
कैसा ये प्रारम्भ है
मनुष्यता की आड़ में
ये दृश्य कितना दम्भ है
जल रहा मनुष्य है
कैसा ये रहस्य है
भागता है खोज में जिसके
भूल कर ये हास्य है
वर्तमान भूल कर
कर चुका दशा है अपनी
ज़िन्दगी का सुख भूला कर
अर्थ की माला है जपनी
आज है वो कल नही
है भागता तू बाद जिसके
जो गलत वो न सही
कर तेरे हर काज संभलके
एक दिन वो दूर नही
न तो तू रह जायेगा
न तेरा कुछ बच पायेगा
वो कर्म तेरे और यादें ही
लोगों में बस जाएगा
सौभाग्य नही रोज़ जागती है
न जीवन बाहों में रोज़ नापती है
पड़े जिधर तेरी दृष्टि
बस हँस उठे सारी सृष्टि
कुछ ऐसा तू कर दिखा
मनुष्यता का लाभ उठा
होकर निर्भय
कर काज अजय
हर नक्षत्र तुझे सोहराएगा
कण कण धरती का सिंचाएगा
जब अंत तेरा हो जाएगा
~RV
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