तन्हाई
बढ़ रही मेरे पन्नो की तन्हाई है,
कलम से मेरे सोच की ऐसी जुदाई है,
थम सी गयी मेरी सारी लिखाई है।
मन भर न कुछ सोच सकू अब
न ही लिख सकूँ कुछ भी
हाथों में कलम पकड़ूँ जब
उड़ जाते खयाल सभी
भटकता हूँ फिर रहा अब
किसी प्रेरणा की तलाश में
बिन कल्पना ठहर सा गया
जैसे ज़िंदा कोई लाश मैं
लगता है शब्द मुझसे रूठ गए
उनसे बंधन जैसे टूट गए
कोशिश जितनी भी करूं
वो पास आने से रहे
कभी कभी हूँ सोचता
क्या दर्द मेरे मिट गए?
खुदसे हूँ मैं पूछता
क्या तकलीफ सारे सिमट गए?
क्या लहू की स्याही सूख गई?
क्या माँ की ममता चूक गयी?
है कहाँ वो कविता
जो क्रांति की आग लिए फिरती थी
है कहाँ वो गाथा
जो हर गरीब की आत्मकथा कहती थी
क्या उस क्रांति की आग बुझ गयी?
क्या गरीबी की चीख सुनाई देनी बंद हो गयी?
क्यों खुदको बयान करने की क्ष्यमता मैने खो दिया?
या फिर मुझको जो कुछ कहना था वो सारी बातें भूल गया?
क्या नहीँ पहुंचती मेरी बातें उन सारे कानों तक?
क्या मेरा संदेशा नहीं पहुंचा सारे ठिकानों तक?
क्यों युवा पीढ़ी है खामोश?
इसबात का है मुझको अफसोस।
अबतक क्यों मेरे देश की अवस्था ऐसी गंदी है?
सपने देखने वालों के सिर में क्यों नाकाबंदी है?
हर ज्वाला इस प्रकार अगर बुझ जाएगी
तो क्या देश मे बदलाव, उनकी राख लाएगी?
~RV
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